Ahmad Faraz Shayari – ये वफ़ा तो
ये वफ़ा तो उन दिनों की बात ही “फ़राज़”
जब लोग सच्चे और मकान कच्चे हुआ करते थे
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ये वफ़ा तो उन दिनों की बात ही “फ़राज़”
जब लोग सच्चे और मकान कच्चे हुआ करते थे
हजूम ए दोस्तों से जब कभी फुर्सत मिले
अगर समझो मुनासिब तो हमें भी याद कर लेना
वो बाज़ाहिर तो मिला था एक लम्हे को फ़राज़
उम्र सारी चाहिए उसको भुलाने के लिए
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ज़माने के सवालों को मैं हँस के टाल दूँ फ़राज़
लेकिन नमी आखों की कहती है “मुझे तुम याद आते हो”
ज़माने के सवालों को मै हंस के टाल दूं “फ़राज़”
लेकिन नमी आँखों की कहती है मुझे तुम याद आते हो
इतना न याद आया करो कि रात भर सो न सकें फ़राज़
सुबह को सुर्ख आखों का सबब पूछते हैं लोग
इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ ऐ फ़राज़
इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं
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इस अजनबी शहर में ये पत्थर कहां से आया “फराज़”
लोगों की इस भीड में कोई अपना ज़रूर है
तपती रही है आस की किरणों पे ज़िन्दगी
लम्हे जुदाइयों के मा – ओ साल हो गए
प्यार में एक ही मौसम है बहारों का “फ़राज़”
लोग कैसे मौसमों की तरह बदल जाते है
बहुत अजीब है ये बंदिशें मुहब्बत की ‘फ़राज़’
न उसने क़ैद में रखा न हम फरार हुए
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