Hindi Ghazals By Ahmad Faraz – कभी मोम बन के
कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया
उसे रोकता भी तो किस तरह के वो शख़्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से कभी अश्क़ से न पिघल सका
सरे-राह मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका
वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका
वो सँभल गया था ‘फ़राज़’ मगर मैं बिखर के न सिमट सका
आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस* न हो ख़िल्वत-ए-ग़म* से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा
तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा* देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त* से उतर जायेगा
ज़िन्दगी तेरी अता* है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल* पे उतर जायेगा
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का “फ़राज़”
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा
मानूस = आत्मीय
ख़िल्वत-ए-ग़म = अकेलेपन का ग़म
सर-ए-राह-ए-वफ़ा = प्यार का रास्ता
बाम-ए-रफ़ाक़त = दोस्ती/ निष्ठा की छत, प्यार की जवाबदारी
अता = दान
साहिल = किनारा